घड़ी की सुई चल रही है ,
समय क्यों ठहरा सा लगता है।
पाबन्दी कोई नहीं है फिर,
हरदम क्यों पहरा सा लगता है।
चीख -चीख कर बोल रही हूँ ,
हर मानव क्यों बहरा सा लगता है।
चुल्लू भर पानी देखूं तो ,
मुझे क्यों गहरा सा लगता है।
आंगन मैं खड़ा ताड़ का पेड ,
मुझे क्यों लहरा सा लगता है ।
तारों के झुरमुट के पीछे ,
चांद का टुकडा आज
मुझे क्यों सहरा सा लगता है....
पूनम अग्रवाल
समय क्यों ठहरा सा लगता है।
पाबन्दी कोई नहीं है फिर,
हरदम क्यों पहरा सा लगता है।
चीख -चीख कर बोल रही हूँ ,
हर मानव क्यों बहरा सा लगता है।
चुल्लू भर पानी देखूं तो ,
मुझे क्यों गहरा सा लगता है।
आंगन मैं खड़ा ताड़ का पेड ,
मुझे क्यों लहरा सा लगता है ।
तारों के झुरमुट के पीछे ,
चांद का टुकडा आज
मुझे क्यों सहरा सा लगता है....
पूनम अग्रवाल
4 comments:
"चीख -चीख कर बोल रही हूँ ,
हर मानव क्यों बहरा सा लगता है।"
बहुत बढीया, पूनम जी
Dhanyavad Praveenji!!
Mam ur poems are indeed full of wisdom and poetry in equal tones... wonderful write on... u could try publishing them...
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