Friday, March 15, 2013

Mere nanhe farishte

तुम्हें न देखा न स्पर्श किया,
नाही सुना है अब तक 
पर  तुम कितने खास बन गए हो ,
तुम्हारे आने की जब से हुई है दस्तक !

तुम्हारे आने का इन्तजार है अब 
तुम्हे पाने को बेकरार है सब 
जुड़ गए है तुमसे  अनेको रिश्ते 
मेरी दुवाये तुमको मेरे नन्हे फ़रिश्ते!

तुम कभी हिचकी कभी किकिंग से 
कराते हो अहसास अपना 
तभी तुम लगते हो हकीकत ,
नहीं हो कोई सपना !!

जब से पता चला है 
एक नवजीवन पल रहा है .
जुड़ गए है तुमसे मेरे इमोशंस 
तुमने करा दिया है मेरा भी प्रमोशन !!

पूनम अग्रवाल ......

Saturday, March 31, 2012

jeevan path

जीवन पथ
हम बढ़ जाते है आगे ,
इस जीवन पथ पर .
छूट जाता है ,
बहुत कुछ पीछे .
कुछ खट्टी कुछ मीठी ,
यादें साथ चलती है .
सोचती हूँ कई बार -
काश! हम लौट पाते,
उन पलों में वापिस,
किसी खटास को ,
मिठास में बदल पाते.
उन पलों को वैसा ही
जी पाते दोबारा ,
जैसा आज चाहते है .
पर ऐसा हो नहीं सकता.
तब - कर लेते है
हम समझौता ,
अपने वर्तमान से ,
अपनी परिस्थिति से .
यही जीवन है
और
यही सच भी .....

पूनम अग्रवाल ....

Sunday, February 26, 2012

nari


नारी.....

ईश्वर की अनूठी रचना हूँ मै
हाँ ! नारी हूँ मैं .........
कभी जन्मी कभी अजन्मी हूँ मैं ,
कभी ख़ुशी कभी मातम हूँ मैं .

कभी छाँव कभी धूप हूँ मैं,
कभी एक में अनेक रूप हूँ मैं.

कभी बेटी बन महकती हूँ मैं,
कभी बहन बन चहकती हूँ मैं .

कभी साजन की मीत हूँ मैं ,
कभी मितवा की प्रीत हूँ मैं .

कभी ममता की मूरत हूँ मैं ,
कभी अहिल्या,सीता की सूरत हूँ मैं .

कभी मोम सी कोमल पिंघलती हूँ मैं,
कभी चट्टान सी अडिग रहती हूँ मैं .

कभी अपने ही अश्रु पीती हूँ मैं,
कभी स्वरचित दुनिया में जीती हूँ मैं .
ईश्वर की अनूठी रचना हूँ मै,
हाँ ! नारी हूँ मै .....

पूनम अग्रवाल .....



Sunday, July 25, 2010

शार्टकट...


मैं मलिन नदी ,


शकुंतला की अठखेलियों को


करीब से देखा है मैंने ,


'भारत' ने जिससे पाया


अपना नाम उस भरत को


स्पर्श किया है मैंने ।


तब वेग था मेरे मन में ,


धैर्य था मेरे तन में ।


समय बीता -


आज में त्रस्त हूँ ,


तन मन से ध्वस्त हूँ।


सूख गया है तन मेरा,


टूट गया है मन मेरा ।


मेरे उस और बसे


लोग आज भी


इस और आते है ।


रोंद कर सभी मुझे


निकल जाते है ।


उनके लिए मैं कुछ भी नहीं ,


सिर्फ एक "शोर्ट कट " हूँ ।


पूनम अग्रवाल ...



Monday, July 13, 2009

एक नजारा


ट्रेन के डस्टबिन के पास
मैले -कुचेले फटेहाल
वस्त्रों से अपना तन ढकती ,
गोद में स्केलेटन सा
बिलखता बच्चा थामे ,
डालती है अपना हाथ
डस्टबिन में वो ।
कचरे के बीच
बचे -खुचे खाने से भरी
एक थाली
ले आती है चमक
उसकी आँखों में।
इसपर भी चखती
अपनी उंगली से
बची-खुची दही-रायता।
फ़िर भरती है
बिनी हुई कटोरियों में
वोही झूठन ....
शायद घर पर
बीमार बूढी माँ
के लिए है वो सब ।
रोते बच्चे को
सूखे स्तन से
लगाती है जबरन ।
बटोरकर आशा
ट्रेन से
उतर जाती है
अगले पड़ाव पर ।
वाह रे भारत देश !
भारत की ये भारती !

पूनम अग्रवाल ......

Saturday, April 18, 2009

छलने लगे है....


महक रही है फिजा कुछ इस तरह,
खुली पलकों में तसव्वुर अब पलने लगे है।

पिंघल रही है चांदनी कुछ इस तरह ,
ख्याल तेरे गज़लों में अब ढलने लगे है।

उभर रही है आंधियां कुछ इस तरह,
सवाल मेरे लबों पर अब जलने लगे है।

मचल रहे है बादल कुछ इस तरह,
जलते सूरज के इरादे अब टलने लगे है।

छलक रहे है सीप से मोत्ती कुछ इस तरह ,
मीन को सागर में वो अब खलने लगे है।

बढ़ रही है तन्हाईयाँ कुछ इस तरह,
कदम मुड़कर तेरी तरफ़ अब चलने लगे है।

उतर रही है मय कुछ इस तरह,
हम ख़ुद-बखुद ही ख़ुद को छलने लगे है॥

पूनम अग्रवाल ........

Thursday, March 19, 2009

दस्तक आ गयी है......


क्यूँ छिटकी है चांदनी आसमां पर.....
क्यूँ बिखरे है रंग जमीं पर.....
क्यूँ हवाओं में ताजगी सी है ....
लगता है कहीं से बहार आ गयी है। ।

क्यूँ ताजगी सी है हवाओं पर ....
क्यूँ बिछी है नजरें राहों पर....
क्यूँ इन्तजार की इन्तहां हो गयी है....
लगता है बेमोसम बरसात आ गयी है॥

क्यूँ गुनगुनाहट सी है सांसों में....
क्यूँ तान छिडी है साजों में......
क्यूँ जुबान खामोश सी है.....
लगता है मिलन की बात आ गयी है॥

क्यूँ महकते ही पत्ते शाखों पर .....
क्यूँ लहराती है जुल्फें शानो पर.....
क्यूँ छलकता है दिल हरदम .....
लगता है तेरे आने की दस्तक आ गयी है॥

पूनम अग्रवाल .....

Friday, February 27, 2009

Friday, January 30, 2009

जिन्दगी


बाहों में हो फूल सदा ,

ये जरूरी तो नही ।

काँटों का दर्द भी ,

कभी तो सहना होगा।

राहों में छाव हो सदा,

ये जरूरी तो नहीं।

धुप की चुभन में,

कभी तो रहना होगा ।

हंसी खिलती रहे सदा ,

ये जरूरी तो नहीं।

पलकों पर जमे अश्को को,

कभी तो बहना होगा।

हर पल रहे खुशनुमा सदा,

ये जरूरी तो नहीं,

थम सी गयी है जिन्दगी,

कभी तो कहना होगा।

पूनम अग्रवाल.......

Wednesday, January 14, 2009

तुक्कल ....(ज़मीनी सितारे)

गुजरात में मकर संक्रान्ती के दिन पतंग - महोत्सव की अति महत्ता है। दिन के उजाले में आकाश रंगीन पतंगों से भर जाता है। अँधेरा होते ही पतंग की डोर में तुक्कल बांध कर उडाया जाता है। जो उड़ते हुए सितारों जैसे लगते है। उड़ती हुयी तुक्कल मन मोह लेने वाला द्रश्य उत्पन्न करती है। इस द्रश्य को मैंने कुछ इस तरह शब्दों में पिरोया है.........

कारवाँ है ये दीयों का,
कि तारे टिमटिमाते हुए।

चल पड़े गगन में दूर ,
बिखरा रहे है नूर।

उनका यही है कहना ,
हे पवन ! तुम मंद बहना ।

आज है होड़ हमारे मन में ,
मचलेंगी शोखियाँ गगन में।

आसमानी सितारों को दिखाना,
चाँद को है आज रिझाना।

पतंग है हमारी सारथी,
उतारें गगन की आरती।

हम है जमीनी सितारे,
कहते है हमे 'तुक्कल' ........

पूनम अग्रवाल ....

Tuesday, December 30, 2008

देती हूँ कोख श्रष्टा को भी ......


मै कोई बदली तो नहीं ,
बरस जाऊँ किसी आँगन में ।
घटा हूँ घनेरी,
बुझाती हूँ तृष्णा तपती धरती की .......

मै कोई जलधार तो नहीं,
बिखर जाऊँ कहीं धरा पर ।
सागर हूँ अपार,
छिपाती हूँ धरोहर निज गहराई में......

मै कोई आँचल तो नहीं,
ढक लूँ झूमते हुए उपवन को।
रजनी हूँ पूनम,
निभाती हूँ नई सुबह जीवन की......

मै कोई किरण तो नहीं,
सिमट जाऊँ किसी मन में।
चांदनी हूँ धवल,
समाती हूँ अन्धकार के जीवन में......

मैं कोई श्रष्टा तो नहीं,
कर दूँ निर्माण श्रृष्टि का।
श्रष्टि हूँ सम्पूर्ण ,
देती हूँ कोख श्रष्टा को भी......

पूनम अग्रवाल........

Thursday, December 25, 2008

बुलंद होसले


हाल ही मे स्पिन अकेडमी द्वारा आयोजित एक डांस शो देखने का अवसर मिला । मुंबई की ये संस्था जो हमारे शहर में आयी और कई स्कूल के ५००-५५० बच्चो को चुनकर उन्हें मात्र १५ दिनों के अंदर उन्हें डांस शो के लिए तैयार कर दिया । डांस शो तो बहुत से देखे है लेकिन इस शो में कुछ अलग ही बात थी ,जो मैं लिखने के लिए मजबूर हो गयी हूँ।

अलग इसलिए क्यूंकि इसमे एक डांस-परफॉर्मेंस नेत्रहीन बच्चो की थी । जब ये बच्चे मंच पर आए तो इन्हे क्या पता था कि उन्हें कितने लोग देख रहे है । तालियों की गडगडाहट से पूरा प्रांगन गूंज उठा ।उन्हें अहसास करवाया गया कि तुम मस्त होकर नाचो , हम इतने सारे लोग तुम्हारे होसलो को बढ़ाने के लिए तुम्हारे साथ है। वे एक अंग से अक्षम बच्चे मस्ती से झूम रहे थे। उन्हें देखकर अक्षम और सक्षम बच्चो में अंतर कर पाना मुश्किल था । उनमे सक्षम बच्चो को मात देने का होसला जो था। उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ तालियों की गडगडाहट का अहसास था। वे बच्चे कही से भी अक्षम नही थे ,उनके होसले जो बुलंद थे।

कई लोग तो बीच में ही खड़े होकर उनका तालियों से होसला बढ़ा रहे थे। जब उनकी डांस-परफॉर्मेंस समाप्त हुई तो उनके सम्मान में लोगो ने दोबारा अपनी कुर्सी से उठकर ढेर सारी तालियों से उनका स्वागत किया । उस समय उन बच्चो की शक्ल पर खुशी, आत्मसम्मान और संतोष के भावः साफ़ झलक रहे थे मानो कह रहे हो -हम किसी से कम नहीं । फ्लाईंग -किस देते हुए बच्चे मंच छोड़ रहे थे। साथ ही हमारे दिलों को भी साथ ले जा रहे थे। अपनी एकअमित छाप हम सबपर छोडकर ......

पूरा वातावरण तालियों की गडगडाहट से गूंज रहा था। दिल को छू लेने वाली इस परफॉर्मेंस को देखकर मेरी ऑंखें खुशी और कहीं रंज से नम थी। दिल पर एक बोझ था कि भगवन ने इन मासूमों के साथ कहीं न कहीं तो नाइंसाफी कर ही दी है। लेकिन उनकी हिम्मत और होसलें को देखकर मन को झटक दिया कि इन मासूमों ने तो भगवान् को भी हराकर रख दिया है......

कौन कहता है मंजिल मिल नही सकती
खुदा भी ख़ुद चलकर आयेगा गर होसले बुलंद हों........

पूनम अग्रवाल ......

Saturday, December 20, 2008

मन तो है कवि मेरा.......


मन तो है कवि मेरा,
शब्द कहीं गुम हो गए थे।
पाया साथ तुम्हारा फ़िर ,
क्यूँ हम गुमसुम से हो गए थे।

शब्दों के इस ताने बने में,
था क्यूँ उलझा मन।
बन श्याम तुम खड़े थे पथपर,
फ़िर क्यूँ शब्द हुआ थे गुम ।

सांसों के इस आने -जाने में
था क्यूँ सिमटा तन।
बन सावन तुम बरस रहे थे,
फ़िर क्यूँ शुब्ध हुआ था मन॥

मन तो है कवि मेरा,
शब्द कहीं गुम हो गए थे।


पूनम अग्रवाल .........

Thursday, December 11, 2008

कुछ शेरो- शायेरी


आसमां के नजारों में तुम्हे पाया है,
चमन के सितारों में तुम्हे पाया है।
अफ़साने कुछ इस कदर बदले मेरे,
जिधर देखू उधर तुम्हे ही पाया है॥

-------------

तसव्वुर में भी अश्क उभरे है जब कभी,
पलकों से मेरी उन्हें तुमने चुरा लिया।
यादों के गहरे साए ने घेरा है जब कभी,
सदा देकर तुमने मुझको बुला लिया॥

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अब और क्या मांगूं मैं खुदा से,
तेरा प्यार मिला दुनिया मिल गयी।
सदा साथ तेरा युही बना रहे,
मांगने को यही दूआ हमे मिल गयी॥

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तुम्हे गैरों से कब फुर्सत ,
हम अपने गम से कब खाली ।
चलो अब हो गया मिलना,
न तुम खाली न हम खाली।

पूनम अग्रवाल .......

Monday, December 8, 2008

दो प्रेमी मिलते है ऐसे.......


नजरों से नजरे मिली है ऐसे,
नवदीप जले हो चमन में जैसे।

मन में हलचल मची है ऐसे,
सागरमें मंथन हो जैसे।

अधरों से अधर मिले है ऐसे,
गीतों से सुर मिले हों जैसे।


माथे पर बुँदे छलके है ऐसे ,

जलनिधि से मोत्ती हों जैसे।


आलिंगन में बंधे है ऐसे,
कमल में भ्रमर बंद हो जैसे।

मदहोशी है नयन में ऐसे,
बात खास कुछ पवन मैं जैसे।

बाँहों के घेरे है ऐसे,
पंख पसारे हों नभ ने जैसे।

शब्द मूक कुछ हुऐ है ऐसे,
दिल में घडकन बजी हो जैसे।


प्रेम-रस यूँ छलके है ऐसे,

समुद्र -मंथन में अमृत हो जैसे।

दो प्रेमी मिलते है ऐसे,
तान छिडी हो गगन में जैसे ।

पूनम अग्रवाल .....

Saturday, November 29, 2008

बेनाम

मुंबई में घटित आतंकवाद के इस नए रूप ने सबको हिला कर रख दिया है। यम् के रूप में आए आतंकवादी .... मासूमों की भयानक मोतें ...आख़िर क्या साबित करना चाहते हैवे... इंसान की इंसान से इतनी नफरत .....नफरतों का सैलाब हो जैसे.....
सबके मन में एक रोष है ...एक रंज है...पूरी की पूरी व्यवस्था चरमरा चुकी है ....कब जीवन फिर से पटरी पर आएगा ... कुछ पता नही......मेरा salaam है .... उनको jinhone जीवन बलिदान दिया.....

रूह पर थे जो कभी कुछ जख्म,
नजर अब सारे आने लगे है।

तुफा है कि ये है बवंडर ,
शकल यम् की ये पाने लगा है ।

जंगल की आग कुछ यूँ धधकी ,
तन क्या मन भी झुलसने लगा है।

ठहर जाओ ए तेज हवाओं !
लहू उभर कर अब आने लगा है॥

पूनम अग्रवाल ....

Wednesday, November 12, 2008

कविताओं के बीच एक पन्ना ये भी ......

रात के साढ़े तीन बजे है । मुझे नींद नही आ रही है। दो दिन पहले ससुराल से आई बिटिया वापिस ससुराल चली गयी है । उसकी याद करके बार बार आँखे नम हो रही है । माँ की गोद में एक बच्चे की तरह लिपट जाना उसे कितना अच्छा लगता है । फ़िर से बचपन में लौट जाना कितना आल्हादित करता है उसे । रहती होगी ससुराल में बड़ी बनकर, मेरे आँचल में तो वो एक छोटी सी गुडिया बन जाती है। बार बार मेरे कंधे पर सिर रखकर आँखे बंदकर उस पल का पूरा आनंद लेना चाहती है , न जाने फ़िर कब ये सुख मिल पायेगा। उसके ससुराल जाने के दो दिन पहले से ही एक मन कुछ अंदर से उदास हो जाता है।

विदाई के समय मेरा कोई समान तो नही रह गया -कहते हुए पूरे घर का चक्कर यूँ लगाया जैसे पूरा घर आँखों में कैद कर साथ लेजाना चाहती हो । मै उसके पीछे खडी हूँ और उसकी इस समय की मनोभावना को पूरी तरह समझ रही हूँ। अपने रूम की हरेक छोटी चीज को यूँ नजर भरकर देखा मानो हर चीज को नजर में समेत कर ले जाना चाहती हो । अपने आसुओं को रोकना बहुत अच्छा आता है तुम्हे .काश! मुझे आता ।

बिटिया तुम्हारा कोई समान तो नही रहा यहाँ , लेकिन हर समान में तुम्हारी यादें रह गयी है यहाँ । मै daily समान को clean कर के वहीं रख देती हूँ। साथ तुम्हारे कोमल स्पर्श को फील करती हूँ ।

ये कैसा दस्तूर है अचानक से बिटिया दूर और इतनी पराई हो जाती है । जब मै अपनी माँ से इतनी दूर हुई थी तब इस पीड़ा को गहराई से महसूस नही कर पायी । लेकिन आज मै माँ बनकर बिटिया के दूर होने के दर्द को महसूस कर रही हूँ ।

तुम्हारे रूम में ही तुम्हारी study table पर ये सब लिख रही हूँ । घर में सब सो रहे है । अगर मै बहर की light जलाऊंगी तो सब disturb हो जायेंगे । इसलिए मेरे आसुओं से भीगे face को कोई देख न ले मै धीरे से तुम्हारे रूम में आ गयी हूँ । तुम्हारी हरेक चीज में तुम्हे देख रही हूँ । तुम वहां सो रही होगी । मैं यहाँ बहुत व्यथित हूँ । शायद इसलिए की मै एक माँ हूँ । वो माँ जिसे अपने बच्चों से बढ़ कर इस दुनिया में कुछ नही । जिसकी दुनिया उसके बच्चों से शुरू होती है और बच्चों पर ही ख़तम होती है।

मै थोड़ी देर और यहाँ बैठुंगी । तुम्हारे रूम को निहारूंगी । पता नही नींद कब आएगी , आएगी भी या नही ...........

Monday, September 22, 2008

शर्माने लगे है .........



जिन फूलों की खुशबू पर

किताबों का हक़ था ,

वही फूल भवरों को

अब भरमाने लगे है ।

छिपे थे जो चेहरे

मुखोटों के पीछे ,

वही चेहरे नया रूप

अब दिखाने लगे है ।

पलकों पर थम चुकी थी

जिन अश्कों की माला ,

नर्म कलियों पर ओस बन

अब बहकाने लगे है।

जिन साजों पर जम चुकी थी

परत धूल की ,

वही साज नया गीत

अब गुनगुनाने लगे है ।

जिनके लिए कभी वो

सजाते थे ख़ुद को,

वही आईने देख उन्हें

अब शर्माने लगे है.....

पूनम अग्रवाल.......

Sunday, August 31, 2008

कहर कोसी का "सजल जल"

नभ में जल है,
थल में जल है,
जल में जल है।

कैसी ये विडंबना ?
तरसे मानव जल को है।

भीगा तन है, भीगा मन है,
सूखे होंठ - गला रुंधा सा।
हर नयन मगर सजल है.....

पूनम अग्रवाल....

Monday, August 25, 2008

बिखर गया कोई मेघ गगन पर,

नई-नई सूरत ढली .......

बिखर गया कोई दर्पण धरा पर,

सूरत वही दिशा बदली ॥

स्वप्न

स्वप्न यहाँ पलकों पर ,
सजा करते है।
साकार हो जाता है ,
जब स्वप्न कोई।
दिन बदल जाते है,
रातें बदल जाती है।
बिखर जाता है,
जब स्वप्न कोई ।
तब भी----
दिन बदल जाते है,
रातें बदल जाती है।
अश्क उभर आते है,
दोनों ही सूरतों में।
फर्क बस है इतना-
कभी ये सुख के होते है ।
कभी ये दुःख के होते है।
स्वप्न यहाँ पलकों पर,
सजा करते है .....
पूनम अग्रवाल ....

Sunday, August 17, 2008

' निर्वाण '

सर्वत्र हो तुम ,
सर्वस्व भी तुम।
रचना हो तुम ,
रचनाकार भी तुम।
सर्जन हो तुम,
स्रजन्हारभी तुम।
मारक हो तुम ,
तारक भी तुम।
स्रष्टी हो तुम,
श्रष्टा भी तुम।
दृष्टी हो तुम,
दृष्टा भी तुम।
मुक्ती हो तुम ,
'निर्वाण' भी तुम।

Friday, July 18, 2008

सावन का सूरज

मेघों में फंसे सूरज,

तुम हो कहाँ?

सोये से अलसाए से,

रश्मी को समेटे हुए,

तुम हो कहाँ ?

मेरे उजालों से पूछों -

मेरी तपिश से पूंछो-

सूरज हूँ पर सूरज सा

दीखता नहीं तो क्या !

पिंघली सी तपन मेरी

दिखती है तो क्या !

मैं हूँ वही,

मैं हूँ वहीं ,

मैं था जहाँ ___

पूनम अग्रवाल ......

प्रेम

गगन मांगा

सूरज तो मिलना ही था।

सागर माँगा

मोती तो गिनना ही था।

बगीचा माँगा

फूल तो खिलना ही था।

जग माँगा

'प्रेम' तो मिलना ही था॥

poonam agrawal

आवाज

तंग हो गली
या कि सड़क धुली हुई ,
राह को एक चुनना होगा।

आँखें हो बंद
या कि खुली हुई
स्वप्न तो एक बुनना होगा।

बातें कुछ ख़ास
या कि यादें भूली हुई,
वायदा कोई गुनना होगा।

सन्नाटा हो दूर
या कि हलचल घुली हुई,
आवाज को मन की सुनना होगा॥

पूनम अग्रवाल

Sunday, July 6, 2008

आशा

बात ये बहुत पुरानी है,
एक बहन की ये कहानी है।
मांजी सब उनको कहते थे,
प्रेमाश्रु सदा उनके बहते थे।
कमर थी उनकी झुकी हुई,
हिम्मत नही थी रुकी हुई।
पूरा दिन काम वो करती थी,
कभी आह नही भरती थी ।
सिर्फ़ काम और काम ही था,
थकने का तो नाम न था।
रसोई जब वो बनाती थी ,
भीनी सी सुगंध आती थी ।
चूल्हे पर खाना बनता था,
धुए की महक से रमता था।
कुछ अंगारे निकालती हर रोज,
पकाती थी उस पर चाय कुछ सोच।
शायद भाई कहीं से आ जाए,
तुंरत पेश करुँगी चाय।
थकान भाई की उतर जायेगी,
गले में चाय ज्यूँ फिसल जायेगी।
नही था वो प्याला चाय का ,
वो तो थी एक आशा।
बुझी सी आँखों में झूलती ,
कभी आशा कभी निराशा।
बहन के प्यार की न कभी,
कोई बता सका परिभाषा.....

पूनम अग्रवाल .....




Wednesday, May 21, 2008

भगवान् ( ईश्वर )


रोंदी मिट्टी का ढेर नहीं मैं ,
हवा के झोंके से उड जाऊँ ।
से भूमी हूँ मैं सम्पूर्ण -

बादल का एक टुकडा नहीं मैं,
बरस जाऊँ किसी आंगन में।
से गगन हूँ मैं अनंत-

मंद पवन का झोंका नहीं मैं,
उड़ा लाऊ कुछ तिनके ,धूल ।
से वायु हूँ मैं प्राण -रक्षक -

टिमटिमाते दिए की लों नही मैं,
बुझ जाऊँ दिए की बाती संग
से अग्न हूँ मैं दाहक -

झर झर
बहती धार नहीं मैं,
समा जाऊ किसी सरिता में.
से नीर हूँ मैं जीवन - दायक-

सम्पूर्ण स्राश्ती के हम हैं विधाता ,
मिलकर बनते हैं 'भगवान्'-
रूष्ट एक भी हो जाए फ़िर ,
मानव का नहीं है कल्याण ।

पंचतत्व हैं हम कहलाते '
हमसे हुवा सबका निर्माण।
सर्वत्र हमारी पूजा होती।
सम्पूर्ण जगत में हम विद्यमान।

पूनम अग्रवाल-



Wednesday, April 30, 2008

प्रतिबिम्ब है वो मेरा

..बित्तू हमेशा कहती रही कभी मेरे लिए भी कुछ लिखिए .... तो आज मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी प्रतिमुर्ती के लिए कुछ लिख रही हूँ.....

कहते है लोग-
बिटिया परछाई है तुम्हारी,
मैं कहती हूँ मगर-
परछाई तो श्याम होती है।
न कोई रंग-
बस सिर्फ़ बेरंग ।
वो तो है मेरा प्रतिबिम्ब -
सदा सामने रहता है।
वो तो है मेरी प्रतीमुरती -
छवी मेरी ही दिखती है । ।

Tuesday, April 29, 2008

अंश


जब एक माँ अपनी नाजों से पली बेटी को उसके सपनो के राजकुमार के साथ विदा करती है। उस समय जो एहसास ,जो ख्याल मेरे मन को भिगो गए- शायद हरेक की ममता इसी तरेह उमड़ पड़ती होगी ........

ये रचना सिर्फ मेरी बिटिया के लिए ......

समाई थी सदा से
वो मुझमें ...
एक अंश के तरह॥
एहसास है एक
अलगाव का
पिंघल रहा है ...
क्यों आज मेरी
आँखों में ...
ख्याल आते गए
बहुत से...
आकर चले गए
खुश हूँ मैं ...
इसलिए की
अंश मेरा
खुश है......
--------------

ख्यालो की तपिश से
पिंघल रही है
बरफ आँख की...
रिश्ता कोई हाथों से
फिसल रहा
हो जैसे...

Wednesday, January 16, 2008

तुक्कल ....(ज़मीनी सितारे)

गुजरात में मकर संक्रान्ती के दिन पतंग - महोत्सव की अति महत्ता है। दिन के उजाले में आकाश रंगीन पतंगों से भर जाता है। अँधेरा होते ही पतंग की डोर में तुक्कल बांध कर उडाया जाता है। जो उड़ते हुए सितारों जैसे लगते है। उड़ती हुयी तुक्कल मन मोह लेने वाला द्रश्य उत्पन्न करती है। इस द्रश्य को मैंने कुछ इस तरह शब्दों में पिरोया है.........

कारवाँ है ये दीयों का,
कि तारे टिमटिमाते हुए।

चल पड़े गगन में दूर ,
बिखरा रहे है नूर।

उनका यही है कहना ,
हे पवन ! तुम मंद बहना ।

आज है होड़ हमारे मन में ,
मचलेंगी शोखियाँ गगन में।

आसमानी सितारों को दिखाना,
चाँद को है आज रिझाना।

पतंग है हमारी सारथी,
उतारें गगन की आरती।

हम है जमीनी सितारे,
कहते है हमे 'तुक्कल' ........

पूनम अग्रवाल ....



Wednesday, December 19, 2007

अख्स


एक चिडिया नन्ही सी
लेकर छोटी सी आशा
सुनहरी सी धूप मे
नारंगी गगन के तले
नन्हें से सपने पले
बेखबर बेखौफ होकर
चल पड़ी भरने उडान
तैरती हुई मंद पवन में
निहारती सुन्दर धरती को
अकेली गुनगुनाती हुई
सुख से मुस्काती हुई
नही था शौक उसका
सबसे ऊँची उडान भरुंगी
ऊँची इमारत पर चधूगी
तैरती हुई मंद पवन में
थक जायगी जब -
कही भी उतर जायेगी
ठिकाना जहाँ पायेगी
बीते कुछ पल गाते हुए
सुख से भरमाते हुए -
यकायक डोर आ छू गयी
पंख उसके पसर गए
मंद पवन में बसर गए
धरती पर वो बिखर गयी
आशाये उसकी फिसल गयी
आँखे थी उसकी नम
दिल में था गम-
सोच रही है बिखरी हुई
डोर से छितरी हुई
क्या था कसूर मेरा ?
क्यों हाल हुआ तेरा ?
खून का कतरा न था
पर था दोष किसका-
शायद कही डोर का
डोर वाला है बेखबर
दोष है हवा के झोके का ....

कई अख्स उभर आते है
चिडिया में उतर जाते है
सोचती हूँ कई बार-
एक अक्स कही मेरा तो नही.........

पूनम अग्रवाल.......

Friday, November 16, 2007

वो एक सितारा


आसमां के तारों में वो एक सितारा
क्यों लगता है अपना सा।
पलकें बंद कर देखूं तो सब
क्यों लगता है सपना सा।


बाहें किरणों की पसरा कर वह
देख मुझे मुस्काता है।

बस वही सिर्फ एक सितारा
हर रोज मुझे क्यों भाता है।

आसमां के तारों में वो एक सितारा
क्यों लगता है अपना सा।


बादल की चादर के पीछे जब
वह छिप जाता है।
बिछड़ा हो बच्चा माँ से जैसे
इस तरह तडपाता है


आसमां के तारों में वो एक सितारा
क्यों लगता है अपना सा।
पलकें बंद कर देखूं तो सब
क्यों लगता है सपना सा। ....


- पूनम अग्रवाल .....

Friday, September 7, 2007

हाँ ! कविता हूँ मैं ....


हाँ ! कविता हूँ मैं -
कवि की मासूम सी कल्पना हूँ मैं ,
कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं ।

कहीँ किसी अंतर्मन की गहराई हूँ मैं ,
कहीँ उसी अंतर्द्वंद की परछाई हूँ मैं ।

हाँ !कविता हूँ मैं -

कहीँ आँधियों से टकराता दिया हूँ मैं ,
कहीँ बोझिल सा धड़कता जिया हूँ मैं ।

हाँ !कविता हूँ मैं-

कहीँ श्रृंगार के रस मे लिपटी हूँ मैं,
कहीँ शर्माई सहमी सी सिमटी हूँ मैं ।

हाँ! कविता हूँ मैं-

कहीँ विरह रस मे भीगा गीत हूँ मैं,
कहीँ बंद कमल मे भ्रमर का प्रीत हूँ मैं।

हाँ! कविता हूँ मैं-

कहीँ चांद - तारों कीं उड़ान हूँ मैं ,
कहीँ मरुभूमि मे बिखरती मुस्कान हूँ मैं।

हाँ ! कविता हूँ मैं-
कवि कि मासूम सी कल्पना हूँ मैं,
कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं....

पूनम अग्रवाल

Tuesday, August 21, 2007

मुखोंटो ने मुख को बदल लिया.....

जिस कश्ती पर हुए सवार ,
हवाओं ने रुख को बदल लिया।

गुनगुनाने की चाहत क्या की,
गीतों ने सुर को बदल लिया।

संवरना चाहा जब भी कभी,
आइने ने खुद को बदल लिया।

मुस्कुराने की बात क्या की,
मुखोंटों ने मुख को बदल लिया...


पूनम अग्रवाल....

Sunday, August 5, 2007

अब कभी न हंस पाएंगे ....

न कर ख्वाहिश मुझसे तू फिर उस शाम की।
अब वो अश आर कभी सुनाये ना जायेंगे ।

ए दोस्त! पहले ही एहसान बहुत हैं मुझपर,
मुझसे दुआ को अब हाथ उठाये न जायेंगे।

दिल की दुनिया में शिवाले बनाने की कमी है,
मेरे लब पे वो अफ़साने न कभी बिखर पायेंगे।

जिन्दगी तो मेरी बस खिजा बनकर रह गयी ,
अब अपने नजरे करम का नजराना न करा पाएंगे।

गम लेकर खुशियो को बाँट दिया है हमने ,
हर जगह रुस्वां हुये अब कभी न हंस पायेंगे.......

Friday, August 3, 2007

अगर आह्वान करूं चांद का...




देखती हूँ चांद को -
लगता है बहुत भला ,
सोचती हूँ कईं बार -
अगर आह्वान करूं चांद का
क्या आएगा चांद धरती पर?
अगर आ भी गया
तो बदले में कन्या रत्न
ना थमा दे कही।
मगर उस कन्या का
होगा क्या हश्र।
इस धरती की पुत्री को
धरती मे समाना पड़ता है।
वो तो दूसरी
धरती से आयी होगी।
क्या होगा उसका।
यही सोचकर -
ड़र जाती हूँ ।
नहीं करती आह्वान
चंद्रदेव का।
हे चांद ! तुम
जहाँ हो वहीँ
भले हो मुझे........

-पूनम अग्रवाल

Tuesday, July 24, 2007

ना छेड़ो मेरे गम को इस तरह ,
एक चिंगारी अभी बाक़ी है।

जख्म तो भर गया है मगर,
ये दाग अभी बाक़ी है।

फूलों का काँटों से वास्ता इतना,
जब तक ये पराग अभी बाक़ी है

न कर गम ए दोस्त!बहारों का,
जख्म पुराने है दर्द अभी बाक़ी है।

ज़िन्दगी का जाम तड़क कर टूट गया,
मौत की हंसी अभी बाक़ी है।

ए दोस्त !दामन भरा रहे तेरा फूले से,
यही दुआ अकेली अभी बाकी है........

पूनम अग्रवाल.......

Tuesday, July 17, 2007

सरकता रहा चांद चुपके से रात भर


सरकता रहा चांद चुपके से रात भर,

फिजा में खामोशी सी बिखर गई,
गजब सा सुकून चांद देता रहा रात भर।
तार छिड़ भी गए -नग्मे बिखर भी गए,
महकता रहा आंगन चुपके से रात भर।

सरकता रहा चांद चुपके से रात भर.....

बिंदिया चमक भी गयी ,पायल खनक भी गयी,
बिखरता रहा गजरा चुपके से रात भर।
चूड़ी खनक भी गयी ,अरमान मचल भी गए,
लहराता रहा आँचल चुपके से रात भर।

सरकता रहा चांद चुपके से रात भर......

पलके उठ भी गयी,पलके गिर भी गयी ,
बहकता रहा जाम चुपके से रात भर।
दिए जल भी गए ,दिए बुझ भी गए,
सिमटता रहा तिमिर चुपके से रात भर।

सरकता रहा चांद चुपके से रात भर.....


पूनम अग्रवाल ....

Wednesday, July 11, 2007

सजल जल

नभ में जल है,
जल में जल है,
थल में जल है।

ये कैसी विडम्बना ?
तरसे मानव जल को है।

भीगा तन है,भीगा मन है,
सूखे होंठ -गला रुन्धा सा।
हर नयन मगर सजल है......

पूनम अग्रवाल

Tuesday, July 10, 2007

नवदीप

शीशे का एक महल तुम्हारा,
शीशे का एक महल हमारा.

फिर पत्थर क्यों हाथों में
आओ मिल बैठें , ना घात करें ।

प्रीत भरें बीतें लम्हों को ,
नवदीप जलाकर याद करें......

Monday, July 9, 2007

जीवन क्या है ?

जीवन क्या है ? एक मेला है।
दुःख -सुख का एक रेला है ।

दुःख सागर , सुख सपना है।
दुःख - सागर के तुम बनना तुम सफल गोताखोर .

डूब गए तो न नयन भिगोना,
भीग गये तो न करना मलाल।

मोका मिल है ,मोती चुराना सागर के।
फिर बढाना हाथ अपना .

सर्वप्रथम जो थामेगा हाथ तुम्हारा ,
समझना वही है हकदार , मोती की गागर के...

जीवन क्या है? एक मेला है।
दुःख-सुख का एक रेला है।

सुख सपना जब होगा साकार ,
किसी चीज का ना होगा आकार ।

सपने को न तुम सच समझ लेना
भीड़ से दबे -सबको न अपना समझ लेना।

सपना बड़ा सुहाता है ,
झूम -झूमकर लुभाता है।

सपने तो पर सपने है ,
ये कभी ना अपने है।

सपने में सब लगते है अपने ,
धूप भी कोमल लगती है ।

पतझड़ भी सावन लगता है,
नींद गहरी और गहरी हुई जाती है।

नींद से जागोगे ,तो जानोगे तुम ,
ये तो थे सिर्फ सपने ,मीठे सपने........

- पूनम अग्रवाल

मिलन

चांद खड़ा है द्वारे पर ,
तारों की बारात लिए ।

अम्बर ने अपने आंगन में ,
सजा लिए हैं अरबों दिए।

खिल उठी चांदनी शर्मा कर ,
मेघों का घूँघट किये ।

माथे पर हैचांद की बिंदिया ,
दिल में हैं अरमान लिए।


माला थामे नयन झुकाकर ,
सिमटी है शृंगार किये।

गीतों को गूंजित कर डाला,
अधरों को चुप चाप सिये ।

सितारों की माला गुथ डाली,
चल पडी मिलन है आज प्रिये !
पूनम की है रात प्रिये,
मिलन है आज प्रिये !!!!.....

-पूनम अग्रवाल

Friday, July 6, 2007

गवाही

अम्बर के आंगन मे
तारों के झुरमुट में,
क्या चांद गवाही देगा ?
कहाँ छुपी है माँ मेरी ?

अश्रु के सैलाब में ,
नींद की खुमार में,
क्या स्वप्न गवाही देगा?
कहाँ छुपी है माँ मेरी ?

चलो आज किसी रोते को हंसयाजाये


चलो आज किसी रोते को हन्सायाजाये
नम आंखों की नमी को सुखाया जाये ।

छोटी सी ख़ुशी में तुम हंसी ढूंढ़ लेना ,
ना करना इन्तजार बड़ी सी ख़ुशी का
उमर यूँही बीत जायेगी पलक झपकते ,
बड़ी ख़ुशी क्या पता कल आये ना आये ।

चलो आज किसी रोते को हन्सायाजाये
नम आंखों की नमी को सुखाया जाये ।

संघर्षों से दबी जा रही है जिन्दगी इन्सान की ,
इन्सान को तुम शैतान से न मिलने देना
उमड़ पड़ेगा प्यार टूटेंगे सब बन्धन ,
इन्सान को इंसानियत से मिलाया जाये ।

चलो आज किसी रोते को हन्सायाजाये
नम आंखों की नमी को सुखाया जाये ।

गीत वो गाओ जो प्यार से सराबोर हो,
मीत से ऐसे मिलो कि नयी भोर हो
जीवन हर्षोल्लास से भर जाएगा ,
दुःख को सुख से मिलाया जाये ।

चलो आज किसी रोते को हन्सायाजाये
नम आंखों की नमी को सुखाया जाये ।

- पूनम अग्रवाल

Thursday, July 5, 2007

सकारात्मकता - The height of positivity


फूल बोला शूल से -
मत हो उदास इस बात पर
कि तू नहीं किसी को भाता है
मुझे पता है -तू है सतत प्रहरी उसका
जो तेरा जीवनदाता है ।
मेरा क्या है -एक हवा के झोके से बिखर जाऊंगा ,
किसी जुडे में सज जाऊंगा ,
भगवान् के चरणों में चढ़ जाऊंगा ,
किसी शव पर न्योछावर हो जाऊंगा
मेरे भाग्य का कुछ नहीं पता
पर तुम साथी दुःख के हो
पतझड़ का मौसम आयेगा ,
पत्ते भी झड़ जाएँगे ,
तुम अटल -अडिग रक्षा करोगे शाख की
समझे ना समझे कोई इसे
पर बात है ये लाख की ......

पूनम अग्रवाल

सहरा सा लगता है


घड़ी की सुई चल रही है ,
समय क्यों ठहरा सा लगता है।
पाबन्दी कोई नहीं है फिर,
हरदम क्यों पहरा सा लगता है।
चीख -चीख कर बोल रही हूँ ,
हर मानव क्यों बहरा सा लगता है।
चुल्लू भर पानी देखूं तो ,
मुझे क्यों गहरा सा लगता है।
आंगन मैं खड़ा ताड़ का पेड ,
मुझे क्यों लहरा सा लगता है ।
तारों के झुरमुट के पीछे ,
चांद का टुकडा आज
मुझे क्यों सहरा सा लगता है....

पूनम अग्रवाल

पिंघल जायेगी उमर

आंगन में उजालो को बिखर जाने दो,
पिंघल जायेगी उमर मॉम की तरह।
लम्हों को फिसल कर संभल जाने दो,
उतर जायेगी गले में सोम की तरह।
रिश्तों में कटुता को सिमट जाने दो,
बिखर जायेगी धरा पर व्योम की तरह।
खुली हवा में पंखों को पसर जाने दो,
लिपट जायेगी अनल में होम की तरह।
आँचल में सितारों को समां जाने दो,
ॐ हो जायेगी इक दिन ओऊम की तरह।

- पूनम अग्रवाल

सुकून

दूर कहीँ चिड़ियों का झुंड,
सौ - सौ हजारों चिड़ियों का झुंड,
मैं जहाँ हूँ वहाँ से वे
उडती हुई नहीं तैरती सी दिखती हैं
सांझ के धुंधले आसमान के नीचे ,
कितना सुकून देता है इनको इनका तैरना
इस तरफ इन्सान है
साथ साथ नहीं चल सकते दो इन्सान ,
दो कदम भी सुख से....

पूनम अग्रवाल